प्रयागराज इलाहाबाद हाई कोर्ट ने कहा है कि यदि किसी अधिकारी के खिलाफ जांच के स्तर पर प्रक्रियागत जरूरी नियमों का पालन नहीं किया गया है तो पारित दंड आदेश की वैधता पर प्रश्नचिह्न उठाया जा सकता है। इस टिप्पणी के साथ कोर्ट ने मऊ जिले में तैनात न्यायिक अधिकारी का 2018 से इंक्रीमेंट रोकने संबंधी दंडादेश रद कर दिया है।
यह आदेश न्यायमूर्ति सौमित्र दयाल सिंह तथा न्यायमूर्ति दोनादी रमेश की खंडपीठ ने न्यायाधीश पंकज की याचिका स्वीकार करते हुए दिया है। कोर्ट ने कहा, ‘जांच के दौरान प्रक्रियागत आवश्यकताओं का पालन न करना दंड आदेश की वैधता के बारे में गंभीर चिंता पैदा करता है। जरूरी है कि अनुशासनात्मक प्रक्रिया इस तरह की जाए कि प्रभावित पक्षों को अपना पक्ष पेश करने, आरोपों का जवाब देने और खुद का बचाव करने का उचित अवसर मिले।’
याची मऊ जिले में सिविल जज (जूनियर डिवीजन) था। सेवा में भर्ती होने के तुरंत बाद याची को इंटरनेट मीडिया प्लेटफार्म फेसबुक पर प्रतियोगी परीक्षाओं से संबंधित प्रश्नों वाले संदेश मिले। याचिकाकर्ता को संदेश भेजने वाली युवती ने बाद में न्यायिक अधिकारी के खिलाफ 26 दिसंबर 2018 को शिकायत की।
हाई कोर्ट के महानिबंधक ने जिला जज मऊ को जांच अधिकारी नियुक्त किया। याची को आरोप पत्र जारी किया गया। इसमें अन्य बातों के अतिरिक्त यह भी आरोप लगाया गया कि याची ने प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी में मदद करने के बहाने शिकायतकर्ता के साथ दुष्कर्म किया था।
याची ने 24 अगस्त 2019 को जवाब पेश किया। इसमें आरोपों से इन्कार करते हुए शिकायतकर्ता के बारे में कहा कि वह ब्लैकमेलिंग करती है। जांच अधिकारी ने तीन दिसंबर 2019 को अपनी रिपोर्ट पेश की। इसमें याची को दुष्कर्म के मुख्य आरोप से मुक्त कर दिया गया। हालांकि अज्ञात महिला की फ्रेंड रिक्वेस्ट स्वीकाराने, उसकी संदिग्ध तस्वीरें दिखाने और उसे पैसा हस्तांतरित करने के लिए न्यायिक अधिकारी के खिलाफ प्रतिकूल टिप्पणी की गई।
याची के अधिवक्ता ने तर्क दिया कि जांच अधिकारी ने 1999 के नियमों द्वारा निर्धारित प्रक्रिया का पालन नहीं किया है। याची को आदेश पारित करने से पहले अपना पक्ष रखने का अवसर नहीं दिया गया था। नोटिस देने के बावजूद शिकायतकर्ता ने जांच कार्यवाही में भाग नहीं लिया और लगाए गए आरोपों को साबित करने के लिए कोई साक्ष्य नहीं दिया।
हाई कोर्ट ने माना कि 13 मई 2022 को सजा आदेश पारित करने के लिए कोई उचित कारण नहीं था। कहा, ‘प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों और निष्पक्ष तथा पारदर्शी तरीके से कार्यवाही का संचालन करने का पूरी तरह उल्लंघन किया गया था। विभागीय कार्यवाही अर्ध-न्यायिक प्रकृति की थी और प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का पालन किया जाना चाहिए।’
हाई कोर्ट ने कहा, जांच अधिकारी ने अप्रासंगिक और बाहरी तथ्यों को ध्यान में रखते हुए याची को आरोपमुक्त करने के बाद प्रतिकूल टिप्पणी कर दी। माना गया कि एक बार जब याची को साक्ष्यों के अभाव में मुख्य आरोप से मुक्त कर दिया गया था तो प्रतिकूल टिप्पणी पर पहुंचने का कोई कारण नहीं था।