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Tuesday, July 8, 2025
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    फ्रांस में खंडित जनादेश से यूरोप में मैक्रों की भूमिका कमजोर होगी, अस्थिर सरकार से इकोनॉमी को भी खतरा

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     नई दिल्ली  यूरोप की सबसे बड़ी सैन्य शक्ति और दूसरी बड़ी अर्थव्यवस्था फ्रांस के चुनाव परिणामों ने कई समीकरणों को उधेड़ कर रख दिया। फ्रांस के न्यू पॉपुलर फ्रंट (एनएफपी), वामपंथी दलों का गठबंधन जिसमें समाजवादी, साम्यवादी, पारिस्थितिकीविद और कट्टर वामपंथी फ्रांस अनबोड शामिल हैं, ने पिछले महीने यूरोपीय संसदीय चुनावों के बाद राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों द्वारा बुलाए गए आकस्मिक चुनाव में सबसे बड़े ब्लॉक के रूप में उभरकर चुनाव पर्यवेक्षकों को आश्चर्यचकित कर दिया है। एनएफपी ने 182 सीटें हासिल कीं, जिससे वह मैक्रों के मध्यमार्गी गठबंधन और उसकी 168 सीटों से आगे निकल गया। मरीन ले पेन की नेशनल रैली ने 143 सीटें हासिल कीं। 2022 में उन्होंने 89 सीट अर्जित की थी। ऐसे में इस बार उनका प्रदर्शन काबिले तारीफ रहा है। नेशनल रैली (एनआर) ने नेशनल असेंबली (135 सीटें) में अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन किया, वोटों (32%) के मामले में पहली पार्टी बनकर उभरी।

    30 जून और 7 जुलाई को आयोजित दो चरणों के बीच 220 उम्मीदवारों के नाम वापस लेने के बाद, एनआर ने 29 त्रिकोणीय मुकाबलों में भाग लिया और उनमें से 10 में जीत हासिल की। इसने अपनी अधिकांश सीटें द्विपक्षीय मुकाबलों में जीतीं।

    फ्रांस की विधायिका के निचले सदन, 577 सीटों वाली नेशनल असेंबली का मौजूदा समीकरण बहुत अच्छा नहीं है – यह वामपंथी, मध्यमार्गी और दक्षिणपंथी के बीच बंटा हुआ है। कोई भी समूह बहुमत के करीब भी नहीं है, और सभी के पास संसद के 200 सदस्यों से कम संख्या है। यह देखते हुए कि कोई भी पार्टी पूर्ण बहुमत के लिए न्यूनतम आवश्यक 289 सीटों तक नहीं पहुंच पाई है, फ्रांस राजनीतिक अनिश्चितता का सामना कर रहा है। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद पहली बार फ्रांस में अति दक्षिणपंथी भी सत्ता के कगार पर हैं। लिहाजा यह चर्चा आवश्यक है कि फ्रांस में यकायक राजनीतिक घटनाक्रम में ऐसा बदलाव क्यों आया? क्या मैक्रों का समय से तीन साल पहले चुनाव कराने का दांव उल्टा पड़ गया ? क्या मैक्रों बैकड्रॉप में चल रहे मुद्दों को भांपने में असफल रहे ?

    विशेषज्ञ कहते हैं कि फ्रांस में अलग-अलग चुनावों में विधायकों और राष्ट्रपति के लिए वोट डाले जाते हैं, इसलिए नतीजे चाहे जो भी हों, मैक्रों राष्ट्रपति बने रहेंगे। लेकिन उनका प्रभाव कम हो जाएगा।

    जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) की अमेरिकन स्टडीज की प्रोफेसर अंशु जोशी कहती हैं कि बीते कुछ समय में दुनिया में वामपंथी शक्तियां मजबूत हुई हैं। ब्राजील में लूला की जीत और ब्रिटेन में सुनक की हार इस बात की तरफ इशारा करती हैं। दुनिया में लोकतंत्र के लिए यह बेहतर संकेत नहीं है। जेएनयू के फ्रेंच स्टडीज विभाग के प्रोफेसर अजित कन्ना कहते हैं कि जर्मनी, इटली, तुर्की, इंग्लैंड के बाद फ्रांस में भी दक्षिणपंथियों की विचारधारा स्वीकार नहीं की गई है। फ्रांस के लोग महंगाई और आर्थिक समस्याओं को लेकर काफी परेशानी में हैं। इसलिए वे राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों के नेतृत्व को लेकर भी ज्यादा खुश नहीं हैं।

    शारदा यूनिवर्सिटी के शारदा स्कूल ऑफ बिजनेस स्टडीज के प्रोफेसर और चेयरपर्सन प्लेसमेंट डा. हरि शंकर श्याम कहते हैं कि चुनावों में किसी भी पार्टी को पूर्ण जीत हासिल नहीं हुई। मरीन ले पेन की पार्टी को एक बढ़त मिली, जो इस बात की तसदीक करता है कि उनके विचारों की अपील बढ़ रही है। राष्ट्रपति मैक्रों के मध्यमार्गी गठबंधन को झटका लगा, जबकि वामपंथी झुकाव वाली पार्टी न्यू पॉपुलर फ्रंट को मामूली लाभ हुआ। यह चुनाव परिणाम एक खंडित जनादेश दे रहे हैं।

    क्या गलती कर गए मैक्रों ?

    जानकारों का कहना है कि मैक्रों, जिन्हें “जुपिटर” के नाम से जाना जाता है, ने फ्रांस पर अत्यधिक आत्मविश्वास के साथ शासन किया है। वे अपने निर्णय के प्रति आश्वस्त रहते हैं और नुकसान की परवाह नहीं करते। समय से पहले चुनाव कराने का उनका दांव यह था कि वामपंथी तीन सप्ताह में एकजुट नहीं हो सकते हैं। इसके बजाय, वामपंथी कुछ ही दिनों में एकजुट हो गए। शहरी अभिजात्य वर्ग, विदेशी प्रेस और निवेशक मैक्रों के प्रशंसक माने जाते हैं। उनके श्रम सुधारों ने कंपनियों को अधिक आसानी से कर्मचारियों को काम पर रखने और निकालने की अनुमति देकर अर्थव्यवस्था में गति प्रदान की। सेवानिवृत्ति की आयु बढ़ाने से बोझ हल्का हुआ। लेकिन इन उपायों ने लोगों में असुरक्षा की भावना बढ़ा दी।

    एचईसी पेरिस के प्रोफेसर अल्बर्टो एलेमानो के अनुसार, मैक्रों का समय से पहले चुनाव कराने का फैसला सही था। उन्होंने कहा, मुझे फ्रांस में बहुत सारे छिपे हुए तनाव दिखाई दे रहे हैं, बहुत सारे मुद्दे हैं जिनका समाधान नहीं किया गया है। उन्होंने भानुमती का पिटारा खोल दिया है, देश मैक्रोंवाद से खुश नहीं है। इस चुनाव में वामपंथियों की एकता बड़ा फैक्टर है। उन्होंने अपने मतभेद दरकिनार कर एक प्रभावी गठबंधन बनाया, जिसने कई सीटों पर दक्षिणपंथियों को हराया। यह गठबंधन टिक पाता है या नहीं, यह देखना अभी बाकी है। राष्ट्रपति सहित अन्य दल इसे तोड़ने के प्रयास करेंगे।

    एक बड़ा फैक्टर फ्रांस में अधिक मतदान होने का भी है। इस बार फ्रांस में 60 फीसद से अधिक वोटिंग हुई जबकि दो साल पहले हुए चुनाव में स्थिति बिल्कुल अलग थी। तब महज़ 40 फीसद वोटिंग हुई थी। अबकी बार हुई अधिक वोटिंग का मतलब ये निकाला जा रहा है कि लोग बदलाव के लिए वोट कर रहे हैं, इसलिए वोटिंग के प्रति लोगों में गजब का उत्साह भी देखने को मिला।

    शारदा यूनिवर्सिटी के शारदा स्कूल ऑफ बिजनेस स्टडीज के प्रोफेसर डा. हरि शंकर श्याम कहते हैं कि मैक्रों की लोकप्रियता में गिरावट आई है। जिसके कई कई कारण हैं कि उनकी आर्थिक योजनाएं, जिन्हें अमीरों के पक्ष में देखा जाता था, ने व्यापक असंतोष को जन्म दिया। आलोचकों ने येलो वेस्ट जैसे विरोध प्रदर्शनों पर उनकी सरकार की प्रतिक्रिया की व्यापक रूप से आलोचना की। प्रवास का विषय महत्वपूर्ण है। मैक्रों की मध्यमार्गी स्थिति ने दोनों तरफ से आग लगा दी है।

    मैक्रों का उदय

    मैक्रों 2017 और 2022 में फ्रांस के राष्ट्रपति पद के लिए चुने गए। दोनों बार उन्होंने नेशनल रैली का चेहरा और दिवंगत जीन-मैरी ले पेन की बेटी मरीन ले पेन को हराया। मैक्रों ने 2017 में आसानी से जीत हासिल की, लेकिन पांच साल बाद उनकी जीत का अंतर कम हो गया। हाल के वर्षों में, ले पेन और उनकी पार्टी ने मैक्रों के खिलाफ मतदाताओं को एकजुट किया है। ले पेन ने आप्रवासन, आर्थिक संरक्षणवाद पर सख्त सीमा तय करने और फ्रांस और रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के बीच घनिष्ठ संबंधों की वकालत की है।

    एनएफपी ने किए थे ये वायदे

    एनएफपी के वायदों में मासिक न्यूनतम वेतन बढ़ाना, कानूनी सेवानिवृत्ति की आयु 64 से घटाकर 60 करना, पांच साल में दस लाख नई किफायती आवास इकाइयों का निर्माण करना और भोजन, ऊर्जा और गैस जैसी बुनियादी आवश्यकताओं की कीमतों को स्थिर करना शामिल हैं। राज्य बच्चों की शिक्षा से जुड़े सभी खर्चों को भी वहन करेगा, जिसमें भोजन, परिवहन और पाठ्येतर गतिविधियां शामिल हैं । वामपंथी गठबंधन ने फिलिस्तीनियों के साथ एकजुटता में खड़े होने और वर्तमान फ्रांसीसी सरकार द्वारा यहूदी-विरोधी भावना और इजरायल की आलोचना को खत्म करने का भी वादा किया है।

    फ्रांस में अप्रवासी और मुस्लिम आबादी ने बिगाड़ा समीकरण

    जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की अमेरिकन स्टडीज की प्रोफेसर अंशु जोशी कहती हैं कि फ्रांस में अफ्रीका समेत दुनिया भर से बाहरी आबादी बड़ी तादाद में आई। फ्रांस, इस्लाम, टेरेरिज्म और द चैलेंज ऑफ इंटीग्रेशन, वर्ल्ड फैक्ट बुक के आंकड़ों के अनुसार फ्रांस में इस्लाम धर्म कैथोलिक ईसाईयत के बाद दूसरा सबसे अधिक प्रचारित धर्म है। पश्चिमी दुनिया में मुख्य रूप से उत्तरी अफ्रीकी और मध्य पूर्वी देशों से प्रवास के कारण फ्रांस में मुसलमानों की बड़ी संख्या है। 2017 की प्यू रिसर्च रिपोर्ट में मुस्लिम आबादी कुल आबादी का 8.8% हिस्सा है। कई शोध इस बात का हवाला देते हैं कि जब किसी भी देश में प्रवासी आबादी पांच फीसद से अधिक हो जाती है तो वह अपने जायज और नाजायज हकों के लिए उग्र हो जाती है। चुनावों में इन फैक्टर ने वामपंथियों के हक में काम किया। अजित कन्ना कहते हैं कि फ्रांस में यहूदी, मुस्लिम और अश्वेतों ने मैक्रों के हक में मतदान नहीं किया।

    डा. हरि शंकर श्याम कहते हैं किफ्रांस के मुसलमान चुनाव नतीजों से चिंतित हैं। अप्रवासियों और मुसलमानों के विरोध के लिए जानी जाने वाली नेशनल रैली का उल्लेखनीय उदय परेशानी भरा है। उनके प्रस्तावित उपाय मुस्लिम समुदाय की जीवनशैली में भारी बदलाव ला सकते हैं।

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